२०२५-१०-२६

शिवताण्डवस्तोत्र के सात काव्यानुवाद

 Jitendra Kumar Singh is with नरेंद्र गोळे, केदारसिंहजी मे. जाडेजा and डॉ. हरेकृष्ण मेहेर

#शिवताण्डवस्तोत्रम्_के_सात_काव्यानुवाद

भगवान् शिव के ललित एवं काम्य स्तोत्रों में लंका के राक्षस सम्राट् दशग्रीव रावण कृत 'शिवताण्डवस्तोत्रम्' का महनीय स्थान है। इस स्तोत्र को अनेक ख्यातिलब्ध गायकों ने स्वरबद्ध किया है। पण्डित जसराज, अनुराधा पोडवाल आदि के अतिरिक्त रामानन्द सागर के लोकप्रिय धारावाहिक 'रामायण' में रावण का जीवन्त अभिनय करनेवाले श्री अरविन्द त्रिवेदी ने भी शिवताण्डवस्तोत्रम् का प्रभावशाली पाठ किया है। संस्कृत के अनेक प्रकाण्ड पण्डितों ने शिवताण्डवस्तोत्रम् की शब्दार्थ अन्वय समन्वित टीका की है। इसके अतिरिक्त अनेक भाषा के कवियों ने इसका काव्यानुवाद किया है। यहाँ पाँच काव्यानुवाद प्रस्तुत हैं, जिसमें प्रथम दो काव्यानुवाद स्वयं मैंने किया है। मराठीभाषानुवाद कविश्री नरेंद्र गोळे जी ने, मैथिलीभाषानुवाद कविश्री डॉ. चन्द्रमणि झा जी ने, ओड़ियाभाषानुवाद कविश्री डॉ. हरेकृष्ण मेहेर ने, गुजरातीभाषानुवाद कविश्री केदारसिंहजी मे. जाडेजा ने एवं नेपालीभाषानुवाद कविश्री मुकुन्द शर्मा जी ने किया है।


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शिवताण्डवस्तोत्र का हिन्दीभाषानुवाद
काव्यानुवादक : डॉ. जितेन्द्रकुमार सिंह 'संजय'

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{{पंचचामर छन्द}}

(1)

जटाटवी कढ़ी पवित्र जाह्नवी प्रवाहिता।
प्रचण्ड पन्नगेश हार कण्ठ कान्ति राजिता।
डमड्डमड्ड नाद वेग ताण्डवीय राग से।
बनी रहे सुशान्ति अक्षया महेश भाग से।।

(2)

जटा-सुजाल घूमती सहर्ष झूम निर्झरी।
विराजिता समुच्च शीर्ष लोल वीचि वल्लरी।
ललाट-पट्ट राजती कृशानु पुंज झालरी।
किशोर चन्द्रचूड प्रीति वर्द्धिता घरी घरी।।

(3)

गिरीशजा विलास वर्धमान लोल लोचना।
मुखाब्ज लोकबन्धु देख मुग्ध दुःखमोचना।
कृपा-कटाक्ष भक्त की प्रचण्ड आपदा हरे।
मनोविनोद भक्ति भाव सर्वदा बढ़ा करे।। 

(4)

जटा फणीन्द्र शीर्ष शोभती मणिप्रभारुणी।
दिगंगनाननप्रलिप्त पुष्पधूलि वारुणी।
सुमेघ-सा मदान्ध चर्म सोहता गजासुरी।
सुचित्त मोहता शरीर शम्भु का घरी घरी।।

(5)

ललाट चत्वराग्नि से अनंग शेष काम है।
महेश तेजराशि को प्रणाम है प्रणाम है।
सुधामयूख सम्प्रभा समुच्च चूड राजती।
कृपा रतिप्रियारि सम्पदा अशेष बाँटती।।

(6)

सहस्रनेत्र लेखशेखरप्रसून धूल है।
विधूसराङ्घ्रि या बनी प्रसन्न मोद कूल है।
भुजंगराज मालिका निबद्ध जाटजूट है।
मिली महाविभूति चन्द्रचूड से अटूट है।।

(7)

प्रदीप्त भाल पट्टिका प्रचण्ड अग्निधाम है।
रतिप्रियांग आहुती बचा अनंग नाम है।
नगेन्द्रनन्दिनी कुचाग्र-पत्र चित्रकार को।
भजूँ सदा महेश को त्रिनेत्र निर्विकार को।।

(8)

सुनव्य मेघ मण्डली अमा निशा घिरी भरी।
तमिस्र की अजस्र राशि कण्ठ श्यामता वरी।
ललाट चन्द्र, चूड मुग्ध जाह्नवी विराजिता।
त्रिलोचनप्रसाद से त्रिलोक भूति राजिता।।

(9)

प्रसन्न नील कंज-सी समंजु की छटावली।
सुशोभती पराग रंग कण्ठ कान्ति श्यामली।
सदा भजूँ भवारि को पुरारि मन्मथारि को।
मखारि अन्तकारि को गजारि अन्धकारि को।।

(10)

अपूर्व सर्व मंगला कदम्ब पुष्प-पाँखुरी।
द्विरेफवृत्ति चंचला रसप्रवाह माधुरी।
भजूँ सदा भवारि को पुरारि अन्धकारि को।
रतिप्रियान्तकारि को गजारि को मखारि को।। 

(11)

सवेग झूम झूम घूमती भुजंग मालिनी।
उसास फूफकार से प्रचण्ड भाल ज्वालिनी।
धिमिन्धिमिन्निनाद से मृदंग तुंग ताल है।
नटेश ताण्डवेश की सुवन्दना त्रिकाल है।।

(12)

शिला खड़ी कि सेज हो भुजंग मौक्तिहार हो।
सुपक्ष या विपक्ष हो गरिष्ठ रत्न क्षार हो।
तृणारविन्दनेत्रिणी प्रजा तथा महेन्द्र में।
समान दृष्टि हो सदैव ध्यान हो सुकेन्द्र में।।

(13)

कुटी सदा बसूँ निलिम्प निर्झरी निकुंज की।
स्वशीश अंजली ग्रिहीत शुद्ध बुद्धि पुंज की।
विमुक्त लोल लोचना ललाम भाल लग्न-सा।
सदा सुखी बनूँ पढ़ूँ शिवेति मन्त्र मग्न-सा।।

(14)

सुरेन्द्र नागरी कलाप मौलि मालिकावली।
सुगुम्फ निर्झरी मधूष्ण पाद शोभती भली।
अहर्निशप्रभा शिवांग की मनोविनोदिनी।
महाविभूतिसौख्यदा सदा त्रिलोक मोहिनी।।

(15)

प्रचण्डवाडवाग्नि की प्रभा प्रचार पा रही।
शुभांगना महाष्ट सिद्धि गीत है सुना रही।
विमुक्त वामनेत्रिणी विवाह की कला-कथा।
शिवेति मन्त्रभूषणा जगज्जयाय सर्वथा।।

(16)

पढ़े मनुष्य जो सदैव नित्य भक्तिभाव से।
विशुद्ध-कीर्ति उत्तमोत्तमा जपे लगाव से।।
महेश की कृपा-कटाक्ष श्रेष्ठता उसे लहे।
विरुद्ध मोह-पाश, भक्ति मोक्ष साथ में रहे।।

(17)

पूजा-समाप्ति पल में कर दिव्य सन्ध्या
जो शम्भु-पूजन पढ़े दशकण्ठ-गीता।
आती वहाँ रथ-गजेन्द्र-तुरंगवाली
लक्ष्मी सदा शिव-कृपा मिलती पुनीता।। 

।। इति श्री महापण्डित रावणकृतं संजयोपाख्य श्रीजितेन्द्रकुमार सिंह देवस्य रूपान्तरितं शिवताण्डवस्तोत्रम् ।।

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शिवताण्डवस्तोत्र का हिन्दीभाषानुवाद
काव्यानुवादक : डॉ. जितेन्द्रकुमार सिंह 'संजय'

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शिवताण्डवस्तोत्र का हिन्दीभाषानुवाद
काव्यानुवादक : डॉ. जितेन्द्रकुमार सिंह 'संजय'

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{{हरिगीतिका-छन्द}}

(1)

निकली जटा-वन से अमल देवापगा की धार से।
धुल पूत कण्ठ ललाम शोभा व्याल लम्बित हार से।
डमरू डमड्डम नाद मण्डित चण्ड ताण्डव नृत्य से।
शिवजी करें कल्याण का विस्तार मंजुल कृत्य से।।

(2)

वर भाल पर शोभित जटा के कूप में आनन्द से।
सुरनिम्नगा की उर्मिला-सी उर्मि घूर्णित छन्द से।
प्रखराग्नि धक्धक नाद मस्तक शीश पर शिशु शशि कला।
अनुराग वर्धित हो सदा सद्भक्ति हो सुफलामला।।

(3)

गिरिराजदुहिता के शिरोभूषण प्रकाशित हर दिशा।
लख चित्त पुलकित हो रहा जिनका दिवस या हो निशा।
जिनकी कृपामयि दृष्टि से है नष्ट होती आपदा।
मन मोद से रमता रहे उन शिव दिगम्बर में सदा।।

(4)

जिनके जटावर्ती फणीन्द्रों के फणों के रत्न से।
निकली हुई पिंगल प्रभा मलती सुकुंकुम यत्न से।
मुख दिग्वधू के, मस्त कुंजर चर्म का चादर धरे।
उन स्निग्धवर्णी भूतपति में मन रमा मेरा करे।।

(5)

सुरराज के मुकुटादि पर कुसुमास्तवक की छवि लसी।
उनकी मनोहर धूलि जा शिव-पादुका पर है बसी।
जिनकी जटाएँ बद्ध हैं नागेन्द्र-माला-सृष्टि से।
परमोज्ज्वला सम्पत्ति साधक चन्द्रशेखर-दृष्टि से।। 

(6)

जिस भाल-चत्वर वह्नि-जल मन्मथ हुए तनुगात हैं। 
जिसके समक्ष सुरेश भी रहते सदा प्रणिपात हैं।
जिस पर सुशोभित हो रही शशि की मनोहर है कला।
वह शम्भु-मस्तक भूति दे, जिससे हमारा हो भला।।

(7)

विकराल मस्तक-पट्ट पर धक् धक् धनंजय ज्वाल है।
रतिनाह मन्मथ का बना तत्क्षण भयंकर काल है।
गिरिराजदुहिता के पयोधर-पत्र पर रचना करें।
उन त्रिलोचन में रहे रति, जो निरन्तर दुख हरें।।

(8)

नव नील नीरद मण्डली दुर्धर घिरी अभिराम है।
रजनी कुहू की तम भरी-सी कण्ठ में छविधाम है।
गजचर्मधारी भूति दें, धारण किये भव-भार हैं।
सुरनिर्झरी-चन्द्राभरणधर नाथ विश्वाधार हैं।।

(9)

जिनका मनोहर कण्ठ है नव नील नीरज-सा खिला।
अवलम्बि-कण्ठ-सुनाल-आभा बद्ध ग्रीवा से मिला।
रतिनाह-पुर-भव-यज्ञ का जिनने किया संहार है।
गज-अन्ध-यम-रिपु-भक्ति से होता सुलभ उद्धार है।।

(10)

जगमंगला-गिरिजा-कलावलि-मंजरी-रसकुंज में।
मधु-माधुरी-लोलुप-मधुप विजृम्भणा मधुपुंज में।
मदनारि भव-त्रिपुरारि मख-रिपु को भजूँ सादर सदा।
गज-अन्ध-यम के शत्रु की शुभ दृष्टि हरती आपदा।।

(11)

जिनके सुविस्तृत भाल पर विकराल घूर्णित व्याल है।
क्रमशः प्रवर्धित श्वास से दाहक अनल का ज्वाल है।
धिम धिम धिमिध्वनि गूँजती मंगल मुरज स्वर-कृत्य से।
जय हो सदा नटराज की इस दिव्य ताण्डव नृत्य से।।

(12)

वन की शिला हो या कि शय्या दिव्य शोभाकार हो।
भुजगेन्द्र या मुक्तावली मणिरत्न हो या क्षार हो।
प्रिय मित्र हो या शत्रु हो तृण हो कि कमलाक्षी प्रिया।
जन कि जनपति, दृष्टि सम, शिव-ध्यान हो मेरे हिया।।

(13)

सुर-निर्झरी के कुंज में शुचि पर्णशाला वास हो। 
विषयानुरक्त कुवृत्ति तज शिवमन्त्र का अभ्यास हो।
सिर पर रहे बद्धांजली, लोलुप नयन में प्रीति हो।
शिव की कृपा होवे सुलभ कब भाग्य में हरगीति हो।।

(14)

शिवनागरी कुन्तल गुँथी शुभ्रा चमेली की कला।
रसगर्भ-सौरभ झर रहा शिव-अंग है दिखता भला।
उस दिव्य शोभाधाम में मानस रमा मेरा करे।
दिनरात हो अनुराग शिव की शक्ति भवसंकट हरे।।

(15)

विकराल वाडव-वह्नि-सी अघराशि को देती जला।
ललनाष्टसिद्धि मनोहरा वार्तावली पावन कला।
सुरकामिनी वैवाहिकी गाती मुदित शुचि चंचला।
वह ध्वनि करे संसृतिविजय, शिवमन्त्र से होवे भला।।

(16)

इस उत्तमोत्तम गीत को सद्भक्ति से जो भी पढ़े।
नियमित जपे निर्मल हृदय, जग में प्रगति-सीढ़ी चढ़े।
सुरुगुरु महेश-कृपा-सुलभ सम्भव सुखद सम्मान से।
मन मुक्त होता मोह से, शिवमूर्ति-चिन्तन ध्यान से।।

(17)

।। दोहा-छन्दानुवाद ।।
शिवताण्डव रावण कृता, पूजन शुभ अवसान।
प्रेम सहित प्रपठन करे, शुचि प्रदोष मतिमान।।
गज तुरंग स्यन्दन जुते, सुमुखि लक्ष्मी आप।
उसके गृह शंकर कृपा, रखती मृदु पदचाप।। 

।। इति श्री महापण्डित रावणकृतं संजयोपाख्य श्रीजितेन्द्रकुमार सिंह देवस्य रूपान्तरितं शिवताण्डवस्तोत्रम् ।।

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शिवताण्डवस्तोत्र का मराठी भाषानुवाद
काव्यानुवादक : श्री नरेन्द्र विनायकराव गोळे

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{{पंचचामर}}

(1)

जटांमधून धावत्या जलांनि धूत-कण्ठ जो
धरीत सर्पमालिका, गळ्यात हार शोभतो।
डुमूड्डुमू करीत या, निनाद गाजवा शिवा
करीत ताण्डव प्रचण्ड, शंकरा शुभं करा।।

(2)

जटांतुनी गतीस्थ, गुन्तल्या झर्‍यांपरी अहा
तरंग ज्याचिया शिरी विराजती, शिवा पहा।
ललाट ज्योतदाह ज्या शिवाचिया शिरी वसे
किशोर चन्द्रशेखरा-प्रती रुचीहि वाढु दे।।

(3)

नगाधिराज-कन्यका-कटाक्ष मोदिता शिवे
दिगन्त सन्तती स्फुरून, मोदतीहि भक्त हे।
कृपाकटाक्ष टाकिता जया, विपत्ति मावळे
कधी दिगम्बरामुळे कळे न रंजना मिळे।।

(4)

जटाभुजंग तद्मणी-प्रदीप्त कान्ति ह्या दिशा
कदम्ब-पुष्प-पीत-दीप्त, शोभती झळाळत्या।
गजासुरोत्तरीय ज्या विभूषवी दिगम्बरा
प्रती जडो मती, घडो मनोविनोद, तारका।।

(5)

सहस्रलोचनादि देव, पादस्पर्शता सदा
तयांस भूषवित त्या, फुलांनि भूषती पदे।
भुजंगराज हार हो, नि बांधतो जटाहि तो
प्रसन्न भालचन्द्र तो, चिरायु सम्पदा करो

(6)

कपाल-नेत्र-पावका क्षणात मोकलूनिया
वधी अनंग, हारवी सुरेन्द्र आदि देवता।
शिरास भूषवीतसे सुधांशुचन्द्र ज्याचिया
कपालिना, जटाधरा, दिगन्त सम्पदा करा।। 

(7)

अनंग ध्वंसिला जिने, त्रिनेत्रज्योत तीच ती
नगाधिराज-नन्दिनी-स्तनाग्र भाग वेधती।
सुचित्र रेखते तिथे जयाचि दृष्टी योजुनी
त्रिलोचनाप्रती मना, जिवास वाढु दे रती।।

(8)

नव्या घनांनि दाटली, निशावसेपरी जशी
जटानिबद्धजान्हवीधरा प्रभा विभूषवी।
गजेन्द्र-चीर-शोभिता शशीकला प्रकाशवी
जगास धारका कृपा करून 'श्री'स वाढवी।।

(9)

प्रफुल्ल नील पंकजापरी प्रदीप्त कण्ठ ज्या
जये त्रिपूर ध्वंसिला, तसाच कामदेव वा।
भवास तारणार आणि याग ध्वंसत्या हरा
भजेन शंकरास मी, गजान्तका यमान्तका।।

(10)

कलाबहारमाधुरीस भृंग जो शिवा असे
अनंगहन्त आणि जो त्रिपूर, याग ध्वंसतो।
भवास तारका हरा, सदा शुभंकरा हरा
भजेन त्या शिवास मी, गजान्तका यमान्तका।।

(11)

गतीस्थ सर्पहार जे, विषाग्नि सोडती असे
फणा उभा करून ते, कपालि ओतती विषे।
मृदंगनाद गाजतो, ध्वनी मनास मोहतो
पवित्र ताण्डवी शिवा, विराजतो नि शोभतो।।

(12)‌

शिळा नि शेज, मोतियांचि माळ, साप वा असो
जवाहिरे नि मृत्तिका, विपक्ष, मित्र वा असो।
तृणे नि कोमलाक्षि, नागरिक वा नरेन्द्र वा
करून भेद नाहिसे, कधी भजेन मी शिवा।।

(13)

कधी शिरी धरून हात, शंकरा स्तवेन मी
वसेन जाह्नवीतिरी विमुक्त होउनी मती
सुनेत्रचंचलेचिया कपालिचा 'शिवाय' ही
चिरायु सौख्य पावण्या, कधी सदा स्मरेन मी।।

(14)

पदी विनम्र देवतांशिरी कळ्या, कदम्ब जे
तये चितारली, मनोज्ञ रूप रेखली, पदे।
विभूषति, सुशोभति, मनोहराकृतींमुळे
प्रसन्न ती करो अम्हा, सदाच सौरभामुळे।।

(15)

विशाल सागरातल्या शुभेच्छु पावकापरी
महाष्टसिद्धिकामना करीत सर्व सुन्दरी।
विवाहकालि शंकरा व पार्वतीस चिन्तिती
जगास जिंकता ठरो 'शिवाय' मन्त्रता ध्वनी।।

(16)

सदा करून मोकळ्या स्वरात श्लोक पाठ हे
स्मरून वा श्रवून हे, विशुद्धता सदा मिळे।
हरीप्रती, गुरूप्रती, रती, न वेगळी गती
अशा जिवास मोहत्या शिवाप्रती सदा रुची।।

(17)

पूजासमाप्तिस सन्ध्येस म्हणेल जो हे
लंकेशगीत शिवस्तोत्र अनन्य-भावे
शम्भू तया, रथ-गजेन्द्र-तुरंग-स्थायी
लक्ष्मी प्रसन्न-वदना, वर-दान देई 

।। अशाप्रकारे, श्री रावण विरचित शिवताण्डवस्तोत्र सम्पूर्ण होत आहे।।

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शिवताण्डवस्तोत्र का मैथिलीभाषानुवाद
काव्यानुवादक : डॉ. चन्द्रमणि

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{{गीत-शैली}}

(1)

जटारूप अटवी वन निकसलि जाह्नवीक पावन धारा
गरदनि अवलम्बित फणिमाला ताण्डव नृत्य प्रचण्ड परा।
डिमिक डिमिक डिम डमरु बाजे स्वर लहरी अनुगुंज करे,
करू कल्याण हमर शिवशंकर जयशिव जयशिव हरे हरे।।

(2)

जटा कड़ाही मध्य तरंगित गंग सुशोभित शीश जनिक,
धह-धह ज्वाल ललाटक मध्ये राजित बालक शोम तनिक।
शुचि शरीर सुन्दर शशि शेखर सदा हृदय अनुराग भरे
करु कल्याण हमर शिवशंकर जयशिव जयशिव हरे हरे।।

(3)

धन-धन गिरि तनया विलास निर्लिप्त निरासक्ते योगी,
हुलसित लखि चहुँदिशि प्रकाश निज शिर-भूषण जन-उपयोगी।
सतत् कृपा दृग पाबि दिगम्बर कष्ट हरे आमोद भरे,
करु कल्याण हमर शिवशंकर जयशिव जयशिव हरे-हरे।।

(4)

जटाजूट आवर्तित फणि-मणि कुंकुम रागालेप प्रभा,
आलोकित चहुँ दिशा हस्ति चर्माम्बर पहिरन हरक सदा।
ताहि विलक्षण भूतनाथ मे मन विनोद सदिकाल करे,
करु कल्याण हमर शिवशंकर जयशिव जयशिव हरे हरे।।

(5)

इन्द्रादिक मस्तक आवर्तित पुष्प पराग चरण-पनही,
नागराज केर हार निबद्धित जटा शिखर शशि टा धनही।
चिर सम्पत्ति घटय नहि कहियो रिक्त हमर भण्डार भरे,
करु कल्याण हमर शिवशंकर जयशिव जयशिव हरे हरे।।

(6)

अग्नि प्रज्वलित भालक वेदी मन्मथ शमन तेज सं भेल,
भाल विशाल कलाधर शोभित छथि आराध्य इन्द्रहुक लेल।
मस्तक महाजटिल शिवशंभुक मम अभिष्ट श्री सिद्ध करे,
करु कल्याण हमर शिवशंकर जयशिव जयशिव हरे हरे।। 

(7)

धह धह अनल भाल विकराले कयल कामदेवहुक हवन,
गिरितनया-कुच पत्रभंग रचना कारीगर शिवा रमण।
अटल भक्ति एकाग्रचित्त हो तीन नयन मे ध्यान धरे,
करु कल्याण हमर शिवशंकर जयशिव जयशिव हरे हरे।।

(8)

अमारात्रि केर नवल मेघमाला सन कारी कण्ठ जनिक,
हस्तिचर्म धारक तारक विश्वेश गंगपति चन्द्रमणिक।
परम मनोहर कान्तिवान भगवान धनक विस्तार करे,
करु कल्याण हमर शिवशंकर जयशिव जयशिव हरे हरे।।

(9)

नील कमल दल श्याम प्रभा अनुगमना हरिणी-छवि ग्रीवा,
त्रिपुर काम भव दक्ष यक्ष हरि अन्धक यम हति देव-शिवा।
विघ्न विनाशक पिता महादेव सकल ताप परिताप हरे,
करु कल्याण हमर शिवशंकर जयशिव जयशिव हरे हरे।।

(10)

दम्भ रहित गिरिजाक मधुप जे कला कदम्ब मंजरी पान,
दक्ष यक्ष हरि यम भव अन्तक मन्मथ त्रिपुर असुर अवशान।
महादेव मम कष्ट विनाशक दिवा राति मन भजन करे,
करु कल्याण हमर शिवशंकर जयशिव जयशिव हरे हरे।।

(11)

सिर भुजंग फुफकार वेग सं अनल ललाट धधकि रहलइ,
शिव प्रचणड ताण्डव आलोकित धिमि धिमि नाद धमकि रहलइ।
गुंजित मंगल घोष चहुँदिशि मंगल मंगल सदा करे,
करु कल्याण हमर शिवशंकर जयशिव जयशिव हरे हरे।।

(12)

पाथरवत् पुनि कोमल सेजे साँप आर मुक्ता माला,
रत्न माँटि मित शत्रु अभेदे दुर्वादल अक्षी-कमला।
प्रजा आर पृथ्वीपति में समभाव राखि मन जपन करे,
करु कल्याण हमर शिवशंकर जयशिव जयशिव हरे हरे।।

(13)

ललित ललाट भाल चन्दा में सदिखन स्थिर चित्त रहय,
सुरसरि तट करजोरि भाव निर्मल मन शिव केँ जाप करय।
सजल नेत्र शिव चरण कमल मे पल पल छिन छिन नमन करे,
करु कल्याण हमर शिवशंकर जयशिव जयशिव हरे हरे।।

(14)

अति उत्तम स्तोत्रक वर्णन पाठ नित्य स्मरण करय,
शिवगुरु भक्ति मिलय तहि जन केँ नहि विलोम गति लेश रहय।
गिरिजापति पद भक्ति अहर्निश भवबंधन सं मुक्त करे,
करु कल्याण हमर शिव शंकर जयशिव जयशिव हरे हरे।।

(15)

इति पूजा सन्ध्याकाले दसकन्धर पठितक पाठ करे,
से नर गज रथ सुत धन पावे सदा सुखी सन्तान रहे।
अटल भक्ति सं अचल सम्पदा आशुतोष धन धान्य भरे,
करू कल्याण हमर शिवशंकर जयशिव जयशिव जयशिव हरे हरे।। 

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शिवताण्डवस्तोत्र का ओड़ियाभाषानुवाद
काव्यानुवादक : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर

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{{बंगलाश्री राग}}

(1)

जटा-रूपी बनुँ बिनिःसृत गङ्गा-निर्झरणे परिपूत।
कण्ठ-देशे निज लम्बाइ बिशाळ सर्प-माळा अदभुत।
डिबि डिबि डिबि डम्बरु बाइ य़े कले प्रचण्ड ताण्डब।
निरते आम्भर कल्याण करन्तु से प्रभु पार्बती-धब।।

(2)

जटाजूट रूपी कटाहरे बेगे भ्रमित स्वर्ग-गङ्गार।
तरळ तरङ्ग-भङ्गीरे रुचिर उत्तमाङ्ग शोहे य़ार।
धक धक धक बह्नि जळुअछि य़ार ललाट पटरे।
से चन्द्र-मउळि शिब ठारे मोर मन रमु निरन्तरे।।

(3)

गिरीश-जेमार बिळास-बान्धब शिरोमणिर भास्वती।
दीप्ति बळे दिग समुज्ज्वळ देखि प्रसन्न सदा य़ा मति।
य़ार कृपा-दृष्टि निबारण करे अशेष बिपत्ति घोर।
एपरि कौणसि दिगम्बर तत्त्वे मानस बिहरु मोर।।

(4)

जटाजूट-गत सर्पङ्कर फणा-मणिर आभा पिङ्गळ।
दिगङ्गना-मुखे बोळिदिए सुखे कुङ्कुम-लेप मङ्गळ।
प्रमत्त हस्तीर दोळायित चर्म-उत्तरीये स्निग्ध बर्ण।
भूतेश्वर ठारे अद्भुत भाबरे बिनोद करु मो मन।।

(5)

महेन्द्र प्रमुख देबता समस्त प्रणाम कले बिनीत।
किरीटरु पुष्प-रेणु पाते य़ार पाद-पीठ धूसरित।
नागराज-हारे बिभूषित य़ार जटाजूट परिसर।
चिर अइश्वर्य़्य दिअन्तु से प्रभु शिब शशाङ्क-शेखर।।

(6)

ललाट-अङ्गने ज्वळित अनळ-स्फुलिङ्ग-तेजे किञ्चित।
पुष्पेषु कामकु भस्म करिछि य़े सुरपति-सुपूजित।
सुधामय चन्द्र-कळा-बिमण्डित मुकुटरे शोभाबन।
बिराट-ललाट से शिब-मस्तक हेउ ऐश्वर्य्य़-साधन।। 

(7)

कराळ ललाट-पटे धक धक प्रकाशि अनळ द्युति।
परचण्ड बीर पञ्चशरकु य़े ध्वंसिले करि आहुति।
उमा-पयोधरे पत्र-भङ्गी पाइँ चित्रकर एकमात्र।
त्रिनेत्र से प्रभु ठारे प्रीति लभु मति मोर दिबारात्र।।

(8)

नब मेघमाळा-आच्छादित घोर अमाबास्या त्रिय़ामार।
ब्यापक निबिड़ अन्धकार सम श्यामबर्ण्ण कण्ठ य़ार।
गज-चर्मधर देब बिश्वम्भर चन्द्र-कान्ति-समुज्ज्वळ।
दिअन्तु से हर मन्दाकिनी-धर सुख सम्पद मङ्गळ।।

(9)

बिकशित नीळ राजीब-राजिर श्यामळ प्रभा समान।
कळङ्क छबिरे सुचिह्नित य़ार कण्ठ-देश राजमान।
मदन-दाहक त्रिपुर-नाशक भब-भय-निबारक।
ध्याये दक्ष-य़ज्ञ-गजान्धक-ध्वंसी य़म-भीति-संहारक।।

(10)

गर्ब-बिरहिता पर्बत-दुहिता शोभा रूपी कदम्बर।
कळिका-मधुर मकरन्द-धारा आस्वादने य़े भ्रमर।
भजे काम-ध्वंसी त्रिपुर-बिनाशी संसार-बन्ध-निबारी।
दक्षय़ज्ञ-गज-अन्धक-संहारी अन्तकर अन्तकारी।।

(11)

अत्यन्त चञ्चळ भ्रमित सर्पङ्क फुफुकार शबदरे।
ललाटर भीम अग्नि क्रमे क्रमे ब्यापे य़ार मस्तकरे।
धिमि धिमि धिमि मृदङ्गर मन्द्र मङ्गळ नाद क्रमरे।
प्रचण्ड ताण्डबे बिभोळ शिबङ्क जय हेउ सन्ततरे।।

(12)

पाषाणे आबर मञ्जुळ शयने सर्पे तथा मुक्ता-हारे।
अमूल्य रतने तथा मृत्तिकारे मित्रे अबा शत्रु ठारे।
तृणराशि अबा तरुणी-गणरे प्रजा तथा राजा ठारे।
सम भाब रखि केबे बामदेब शिबङ्कु भजिबि बारे।।

(13)

केबे अबा मुहिँ निबास बिरचि स्वर्णदी-कुञ्ज अन्तरे।
दुर्बुद्धि उपेक्षि मस्तकरे थापि कराञ्जळि बिनयरे।
बिलोळ नयने सुललाट चन्द्र-मौळि-पदे रखि लय।
'शिब शिब' मन्त्र उच्चारि बदने सुखे य़ापिबि समय।। 

(14)

एरूपे कथित उत्तमोत्तम ए स्तब पढ़े य़ेउँ जन।
स्मरण करइ अबा बर्ण्णइ से रहे निति शुद्ध मन।
अचिरे शङ्कर-भक्ति लभे मोदे, न पाए बिरुद्ध गति।
प्राणीङ्कर मोह नाश य़ाए य़ेणु शिबे हेले दृढ़ मति।।

(15)

पूजा-शेषकाळे सन्ध्या-बेळे य़े बा दशानन-बिरचित।
ए शिब-पूजन-बिषयक स्तब पाठ करे शुद्ध-चित्त।
शम्भु-आराधने रथ-गज-अश्व-सम्पन्न सतत स्थिर।
बिपुळ ऐश्वर्य़्य लभे से साधक हर-प्रसादे अचिर।।

(16)

(अनुवाद-फलश्रुति)

महादेबङ्कर ताण्डब दर्शने बिमुग्ध लङ्काधिपति।
बिरचिले श्लोके ए शिब-ताण्डब प्रकाशि दृढ़ भकति।
काशी-बिश्वनाथ सर्ब मनोरथ करिबे शुभे पूरण।
ध्याये हरेकृष्ण मेहेर से हर-मञ्जुळ-पद्म-चरण।।

*****************  [{6}]  ******************

शिवताण्डवस्तोत्र का गुजरातीभाषानुवाद
काव्यानुवादक : कविश्री केदारसिंहजी मे. जाडेजा

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{{पंचचामरवत्-छन्द}}

(1)

જટાજૂટ જટા બની, વિશાલ વન ઘટા ઘનિ,
પવિત્ર ગંગ ત્યાં વસી, ગરલ કણ્ઠ પખાળતી.!
સર્પ જ્યાં અનેક માપ, ડમરુ નાદ પ્રચણ્ડ થાપ,
તાણ્ડવ શિવ નાચતાં, કૃપા કરો કૃપા કરો..!!

जटाजूट जटा बनी, विशाल वन घटा घनि,
पवित्र गंग त्यां वसी, गरल कण्ठ पखाळती।
सर्प ज्यां अनेक माप, डमरु नाद प्रचण्ड थाप,
ताण्डव शिव नाचतां, कृपा करो कृपा करो।।

(2)

કોચલી જટા મહીં, ગંગ ત્યાં ભ્રમણ ઘણી,
ચંચલ જલ ધાર થી, શિવ શીશ લહેરી રહી.!
ધધક રહી અગન અકળ, પ્રદીપ્ત શિવ મસ્તકે,
શીશ શોભે ચન્દ્ર બાળ, કૃપા કરો સદા કાળ..!!

कोचली जटा महीं, गंग त्यां भ्रमण घणी,
चंचल जल धार थी, शिव भीश लहेरी रही।
धधक रही अकळ, प्रदीप्त शिव मस्तके,
शीश शोभे चन्द्र बाळ, कृपा करो सदा काळ।।

(3)

નગાધિરાજનન્દિની, વિલાસ સંગ આનન્દીની,
કરે કૃપા કૃપાળ તો, વિપદ ટળે સૌ ભક્તની.!
દિગમ્બરા શ્રી શંકરા, લગાવું ચીત શિવ ચરણ,
ભભૂતનાથ ભવ તરણ, પ્રફુલ્લ ચિત તવ શરણ..!!

नगाधिराजनन्दिनी, विलास संग आनन्दिनी,
करे कृपा कृपाळ तो, विपद टळे सौ भक्तनी।
दिगम्बरा श्री शंकरा, लगावुं चित शिव चरण,
भभूतनाथ भव तरण, प्रफुल्ल चित तव शरण।। 

(4)

શોભે જટા મણીધરો, પ્રકાશપુંજ ફણીધરો,
દિશા સકળ ઉજ્જ્વલ કરી, કેસર વર્ણ ઓપતી.!
ગજ ચર્મથી શોભતાં, સર્વ પ્રાણી રક્ષતાં,
મન વિનોદિત રહે, શિવ કેરા શરણમાં..!!

शोभे जटा महीधरो, प्रकाशपुंज फणीधरो,
दिशा सकळ उज्ज्वल करी, केसर वर्ण चोपती।
गज चर्मथी शोभतां, सर्व प्राणी रक्षतां,
मन विनोदित रहे, शिव केरा शरणमां।।

(5)

સહસ્ત્ર દેવ દેવતા, ચરણ કમલને સેવતા,
ચડાવી શિર ચરણ ધૂલી, પંકજ પદ પૂજતા.!
શોભતા ભુજંગ જ્યાં, ચિત રહે સદાય ત્યાં,
કૃપાળુ ચન્દ્રશેખરા આપો સદાએ સમ્પદા..!!

सहस्र देव देवता, चरण कमलने सेवता,
चडवी शिर चरण धूली, पंकज पद पूजता।
शोभता भुजंग ज्यां, चित रहे सदाय त्यां,
कृपालु चन्द्रशेखरा आपो सदाए सम्पदा।।

(6)

ગર્વ સર્વ દેવના, ઉતારવા અહમ્ સદા,
કર્યો ભસ્મ કામને, જે રૌદ્ર રૂપ આગથી.!
સૌમ્ય રૂપ શંકરા, ચન્દ્ર ગંગ મુકુટ ધરા,
મૂણ્ડકાની માળ ધારી, સમ્પદા દેજો ભરી..!!

गर्व सर्व देवते, उतारवा अहम् सदा,
कर्यो भस्म कामने, जे रौद्र रूप आगथी।
सौम्य रूप शंकरा, चन्द्र गंग मुकुट धरा,
मूण्डकानी माळ धारी, सम्पदा देजो भरी।।

(7)

જે કરાલ ભાલ જ્વાલના, પ્રતાપ કામ ક્ષય થયો,
ઇન્દ્ર આદી દેવનો, મદ તણો દહન થયો.!
ગિરજા સુતાના વક્ષ કક્ષ, ચતુર ચિત્રકારના,
ચરણ કમલ ત્રિનેત્રના, શરણમાં ચીતડું રહે..!!

जे कराल भाल ज्वालना, प्रताप काम क्षय थयो,
इन्द्र आदी देवनो, मद तणो दहन थयो।
गिरजासुताना वक्ष कक्ष, चतुर चित्रकारना,
चरण कमल त्रिनेत्रना, शरणमां चीतडुं रहे।। 

(8)

નવીન મેઘમણ્ડળી, અન્ધકાર ઘોર કણ્ઠ ભળી,
ગજ ચર્મ શોભતાં, ચન્દ્ર ગંગ શિર ધરી.!
સકળ જગના ભારને, સહજમાં સઁભાળતા,
અમ પર ઉપકાર કર, સમ્પત્તિ પ્રદાન કર..!!

नवीन मेघमण्डळी, अन्धकार घोर कण्ठ भळी,
गजचर्म शोभतां, चन्द्र गंग शिर धरी।
सकळ जगना भारने, सहजमां सँभाळता,
अम पर उपकार कर, सम्पत्ति प्रदान कर।।

(9)

નીલકમલ સમાન કણ્ઠ, પૂર્ણ પ્રકાશિત કન્ધ,
કાપો સકળ સૃષ્ટિ દુખ, ગજાસુર હતા.!
વિધ્વંસ દક્ષયજ્ઞ કર, ત્રિપુરાસુર હનન કર,
અન્ધકાસુર કામ હર્તા, નમૂ ભગવન્તા..!!

नीलकमल समान कण्ठ, पूर्ण प्रकाशित कन्ध,
कापो सकळ सृष्टि दुख, गजासुर हता।
विध्वंस दक्षयज्ञ कर, त्रिपुरासुर हनन कर,
अन्धकासुर काम हर्ता, नमू भगवन्ता।।

(10)

કલ્યાણ કારી મંગલા, કળા સર્વ ભ્રમર સમા,
દક્ષ યજ્ઞ ભંગ કર, ગજાસુર મારી.!
અન્ધકાસુર મારનાર, યમના પણ યમરાજ,
કામદેવ ભસ્મ કર્તા, ભજુઁ ત્રિપુરારિ..!!

कल्याणकारी मंगला, कळा सर्व भ्रमर समा,
दक्षयज्ञ भंग कर, गजासुर मारी।
अन्धकासुर मारनार, यमना पण यमराज,
कामदेव भस्म कर्ता, भजुँ त्रिपुरारि।।

(11)

વેગ પૂર્ણ સર્પના, ત્વરિત ફૂંકાર ફેણના,
ધ્વનિ મધુર મૃદંગના, ડમરુ નાદ ગાજે.!
અતિ અગન ભાલમાં, તાણ્ડવ પ્રચણ્ડ તાલમાં,
શોભે શિવ તાનમાં, સૌ રીતે શિવ રાજે..!!

वेगपूर्ण सर्पना, त्वरित फूंकार फेणना,
ध्वनि मधुर मृदंगना, डमरु नाद गाजे।
अति अगन भालमां, ताण्डव प्रचण्ड तालमां,
शोभे शिव तानमां, सौ रीते शिव राजे।। 

(12)

જે પથ્થર કે ફૂલમાં, સર્પ મોતી માળમાં,
રત્ન કણ કે રજ મહી, અન્તર નહીં આણે.!
શત્રુ કે સખા વળી, રાજા પ્રજા કમલ કથીર,
ગણતા સમાન શિવ, ભજન ક્યારે માણે જીવ..!!

जे पथ्थर के फूलमां, सर्प मोती माळमां,
रत्न कण के रज मही, अन्तर नहीं आणे।
शत्रु के सखा वळी, राजा प्रजा कमल कथीर,
गणता समान शिव, भजन क्यारे माणे जीव।।

(13)

બનાવી ગીચ કુંજમાં, વસું હું ગંગ કોતરે,
કપટ વિનાનો આપને, શિવ અર્ઘ્ય આપું.!
અથાગ રૂપ ઓપતી, સુન્દર શિવા શીશ લખ્યું,
મન્ત્ર શિવ નામનું, સુખ સમેત હું જપું..!!

बनावी गीत कुंकुमां, वसुं हुं गंग कोतरे,
कपट विनानो आपने, शिव अर्घ्य आपुं।
अथाग रूप ओपती, सुन्दर शिवा शीश लख्युं,
मन्त्र शिव नामनुं, सुख समेत हुं जपुं।।

(14)

દેવાંગના ના મસ્તકે, શોભી રહ્યા જે પુષ્પછે,
પરાગ ત્યાંથી પરહરી, પહોંચે શિવ દેહછે.!
આનન્દ અપાવે સર્વ જન, સુગન્ધને ફેલાવતી,
અપાવતી હૃદય મઁહી, પ્રસન્નતા અપાર છે..!!

देवांगना ना मस्तके, शोभी रह्या जे पुष्पछे,
पराग त्यांथी परहरी, पहोंचे शिव देहछे।
आनन्द अपावे सर्व जन, सुगन्धने फेलावती,
अपावती हृदय मँही, प्रसन्नता अपार छे।।

(15)

પાપ હો પ્રબલ ભલે, સમુદ્ર દવ-સી કાપતી,
સૂક્ષ્મ રૂપ ધારિણી, સિદ્ધિદાત્રી દેવીઓ.!
વિવાહ પ્રસંગે શિવના, ધ્વનિ હતી જે મન્ત્રની,
દુ:ખો મિટાવી સર્વના, વિજય અપાવે દેવીઓ..!!

पाप हो प्रबल भले, समुद्र दव-सी कापती,
सूक्ष्म रूप धारिणी, सिद्धिदात्री देवीओ।
विवाह प्रसंगे शिवना, ध्वनि हती जे मन्त्रनी,
दुःखो मिटावी सर्वना, विजय अपावे देवीओ।। 

(16)

નમાવી શીશ શિવને, સ્તવન કરેજે સર્વદા,
પઠન કરે મનન કરે, ભજન કરે જે ભાવથી.!
જીવ આ જંજાળ થી, મુક્તિને છે પામતો,
જીવન મરણ મટે સદા, શિવ શરણ તે રાચતો..!!

नमावी शीश शिवने, स्तवन करेजे सर्वदा,
पठन करे मनन करे, भजन करे जे भावथी,
जीव आ जंजाळ थी, विमुक्तिने पामतो,
जीवन मरण मटे सदा, शिव शरण पामतो।।

(17)

રાવણ રચિત આ સ્તોત્રથી, પૂજન કરે જો શિવનું,
પઠન કરે જે સાઁઝના, ભાતું ભરે જીવનું.!
ભર્યા રહે ભણ્ડાર સૌ, અશ્વ ગજ ને શ્રી રહે,
સમ્પતીમાં રાચતો, ના કદી વિપદ રહે..!!

रावण रचित आ स्तोत्रथी, पूजन करे जो शिवनुं,
पठन करे जे साँझना, भातुं भरे जीवनुं।
भर्या रहे भण्डार सौ, अश्व गज ने श्री रहे,
सम्पतीमां राचतो, ना कदी विपद रहे।।

(18)

રચ્યું જે સ્તોત્ર રાવણે, અનુવાદ શું કરી શકું,
ઉમદા અલંકારને 'કેદાર' શું સમજી શકું.!
સહજ બને ભક્તને, એ ભાવથી સરળ કર્યું,
પ્રેમથી પૂજન કરે, એ આસથી અહીં ધર્યું..!!

रच्चुं जे स्तोत्र रावणे, अनुवाद शुं करी शकुं,
उमदा अलंकारने 'केदार' शुं समजी शकुं।
सहज अने भक्तने, ए भावथी सरळ कर्युं,
प्रेमथी पूजन करे, ए आसथी अहीं धर्युं।।

ઇતિ શિવતાણ્ડવસ્તોત્ર અનુવાદ સમ્પૂર્ણ.

इति शिवताण्डवस्तोत्र अनुवाद सम्पूर्ण। 

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शिवताण्डवस्तोत्र का नेपालीभाषानुवाद
काव्यानुवादक : कविश्री मुकुन्द शर्मा

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{{पंचचामर-छन्द}}

(1)

जटा अरण्यमा छिछेर स्वर्गनिर्झरी झरी।
गला पवित्र पार्छ सर्पमाल्यले लरीबरी।
डमड्डमड्ड डिम्डिमे लियेर ताण्डवच्छटा।
फिँजाउने कपालमालने गरून् भलो सदा।।

(2)

नदीतरंग पाक्छ भक्भकी लटाकुँडेभरि।
मडारिँदै छचल्किँदै बहन्छ टाउकाभरि।
धपक्क अग्नि बल्छ त्यो निधारको अँगेनुमा।
त्यहीं शशीकला हुने सतीशमा छ वन्दना।।

(3)

बिहा गरेर पार्वती सुहागरातमा हुने।
सजेर माथ रात नै झल्याक्झुलुक्क झल्कने।
समाउने, रमाउने, दयालु दृष्टि छाउने।
विपत्ति दूर लाउने पुरारिमा म आउने।।

(4)

जटा भरी बटारिने विशाल सर्पका फटा।
झलल्ल बल्छ दिग्वधू मुहारमा दीप छटा।
गजेन्द्रचर्म लाउने तथापि झन् सुहाउने।
मनिम्ति भूतनाथ हुन् सदैव मन्पराउने।।

(5)

छ पादपादुका सचीश आदिका ललाटको।
गुलावका परागले धुलाम्य दिव्य छाँटको।
लटाहरू सजाउने, कराल सर्प बेरिने।
म बालचन्द्रचूडले भलाइनिम्ति हेरिने।।

(6)

निधारमाथि भर्भराउँदो प्रचण्ड अग्निले।
पिएर पंचबाणदर्प पूजिने सुरेन्द्रले।
गला छ मुण्डमाल्यले सिँगारने, निधारमा।
शशी हुने पूरारिको म पाउ पर्छु प्यारमा।। 

(7)

कठै! घमण्ड कामदेवको समस्त गैसक्यो।
विशाल भालविह्वला बलेर भस्म भैसक्यो।
तसर्थ शैलनन्दिनी लिई सुचारु वक्षमा।
कला सजाउने भला भवारिमा छ वन्दना।।

(8)

नयाँ पयोद छाउँदो, अमामसी समानको।
छ कण्ठमा नितान्त नील दाग नीलकण्ठको।
गजेन्द्रचर्म लाउने कला सयौं खुलाउने।
जगत् जमाउने तरंगमौलिमा म आउने।।

(9)

फुलेर रम्य नीलपद्मको छटा समानको।
मृगानुसारको छ नील कण्ठ नीलकण्ठको।
स्मरारिमा पुरारिमा भवारिमा मखारिमा।
गजारि अन्धकारिमा छ वन्दना यमारिमा।।

(10)

लजालु पार्वती पियारको कदम्बको रस।
अनन्त मूलमा पसेर भृंजतुल्य लस्पस।
स्मरारिको पुरारिको भवारिको मखारिको।
गजारि अन्धकारिको सुदृष्टि होस् यमारिको।।

(11)

लपेटिएर माथमा फुफू गरी निरन्तर।
कराल अग्नि फुक्क सर्पले निधार मुन्तिर।
बजाइ डिम्डिमे बड्याङ्बुडुंग उग्र तालमा।
लियेर ताण्डवच्छटा गिरीश झुल्किऊन् ममा।।

(12)

शिला, गिला पलंगमा, भुजगं, मोतिहारमा।
अमूल्य रत्न, मट्टिमा, विपक्ष, मित्रपट्टिमा।
नितम्बिनीर झारमा, प्रजा, महेन्द्रद्वारमा।
समानता लिने स्मरारिको बसौं पुकारमा।।

(13)

म गण्डकी किनारमा निकुंजको दुवारमा।
हटेर पाप, अंजुली लगाउँदै निधारमा।
चियाउँदै पल्याक्पुलुक्क भालचन्द्र पर्खुँला।
जपेर ॐ नमः शिवाय मन्त्रमा सुखी हुँला।। 

(14)

पढेर यो भनेर यो सुनेर यो सदैव नै।
महेशको सुरम्य श्रेष्ठ पाठमा रमाउँदै।
रहेर भक्तिभावमा हटाउँला विमोहन।
मयंकमौलिपाठले हुँदैन पूर्ण के भन??

(15)

जो साँझमा नियम पूजनकार्य मेटी।
यो पाठ गर्छन सदा हृदयै समेटी।
हात्ती रथै पनि मिली भरिपूर्ण हुन्छ।
कैलासमा पछि परन्तु रहीरहन्छ।।


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काय नुसते वाचता प्रतिसाद द्या
हातची राखून द्या पण दाद द्या
आंधळ्यांची दिव्यदृष्टी व्हा तुम्ही
अन् मुक्यांना नेमके संवाद द्या

जीव कासावीस झाला आमुचा
मूळचे नाही तरी अनुवाद द्या
कालची आश्वासने गेली कुठे?
ते पुन्हा येतील त्यांना याद द्या

वेगळे काही कशाला ऐकवा?
त्याच त्या कविताच सालाबाद द्या
एवढा बहिरेपणा नाही बरा,
हाक कोणीही दिली तर साद द्या

गोरगरिबांना कशाला भाकरी?
गोरगरिबांना अता उन्माद द्या
व्हायचे सैतान हे डोके रिते,
त्यास काही छंद लावा नाद द्या

- नामानिराळा, मनोगत डॉट कॉम २००५०६१४
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